India gets its freedom back in 1915
आजादी की लड़ाई का इतिहास लिखे जाने के वक्त नाइंसाफी का शिकार होने वालों में एक ऐसा क्रांतिकारी भी था, जिसका प्लान अगर कामयाब हुआ होता, साथी ने गद्दारी नहीं की होती तो देश को ना गांधी की जरूरत पड़ती और ना बोस की। देश भी 32 साल पहले ही यानी 1915 में आजाद हो गया होता। उस दौर का हीरो था वो, जब खौफ में लोग घरों में भी सहम कर रहते थे, वो अकेला जहां अंग्रेजों को देखता, उन्हें पीट देता था, यतीन्द्र नाथ मुखर्जी के बारे में यही मशहूर था। एक बार तो एक रेलवे स्टेशन पर यतीन्द्र नाथ ने अकेले ही आठ आठ अंग्रेजों को पीट दिया था।
बलिष्ठ देह के स्वामी यतीन्द्रनाथ मुखर्जी साथियों के बीच बाघा जतिन के नाम से मशहूर थे।जतिन ने महसूस किया कि भारत की एक अपनी नेशनल आर्मी होनी चाहिए। शायद यह भारत की नेशनल आर्मी बनाने का पहला विचार था। जो बाद में मोहन सिंह, रास बिहारी बोस और सुभाष चंद्र बोस के चलते अस्तित्व में आई।
1905 में हुआ कलकत्ता में प्रिंस ऑफ वेल्स का दौरा हुआ, ब्रिटेन के राजकुमार। अंग्रेजों की बदतमीजियों से खार खाए बैठे जतिन ने प्रिंस के सामने ही उनको सबक सिखाने की ठानी। प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत जुलूस निकल रहा था, एक गाड़ी की छत पर कुछ अंग्रेज बैठे हुए थे, और उनके जूते खिड़कियों पर लटक रहे थे, गाड़ी में बैठी महिलाओं के बिलुकल मुंह पर। भड़क गए जतिन और उन्होंने अंग्रेजों से उतरने को कहा, लेकिन वो नहीं माने तो ऊपर चढ़ गए बाघा जतिन और एक-एक करके सबको पीट दिया। तब तक पीटा जब तक कि सारे नीचे नहीं गिर गए।
चूंकि ये घटना प्रिंस ऑफ वेल्स की आंखों के सामने घटी थी, तो अंग्रेज सैनिकों का भारतीयों के साथ ये बर्ताव उनके साथ सबने देखा। भारत सचिन मार्ले को पहले ही इस तरह की कई शिकायतें मिल चुकी थीं। बाघा जतिन की बजाय उन अंग्रेजों को ही दोषी पाया गया, लेकिन इस घटना से तीन बड़े काम हुए। अंग्रेजों के भारतीयों के व्यवहार के बारे में उनके शासकों के साथ-साथ दुनियां को भी पता चला, भारतीयों के मन से उनका खौफ निकला और बाघा जतिन के नाम के प्रति क्रांतिकारियों के मन में सम्मान और भी बढ़ गया।
सुभाष चंद्र बोस से पहले रास बिहारी ने जतिन में ही असली नेता पाया था। जतिन का औरा भी इंटरनेशनल था, जतिन दुनियां भर में फैले भारतीय क्रांतिकारियों के संपर्क में थे।
पुलिस को सुराग मिला कि जतिन और उसके साथी कप्टिपाड़ा गांव में हैं। जतिन के साथ मनोरंजन और चित्तप्रिया थे। वहां से वो निकल भागे, जतिन और उनके साथी जंगलों की तरफ भागे, अंग्रेजों ने जतिन पर भारी इनाम का ऐलान कर दिया, अब गांव वाले भी उन्हें ढूंढने लगे। इधर भारी मात्रा में जर्मन हथियार बरामद कर लिया गया। क्रांति फेल हो चुकी थी। सपना मिट्टी में मिल चुका था।
जतिन का आखिरी वक्त करीब आ चुका था, वो घिर चुके थे। आसपास से भी तमाम अंग्रेजी फोर्स को बुला लिया गया था। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था। साथियों ने कहा भी कि आप निकल जाओगे तो दोबारा से आजादी की नई योजना बना लोगे, लेकिन जतिन उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियां चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे। इसी बीच जतिन का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। गिरफ्तारी देते वक्त जतिन ने कलेक्टर किल्वी से कहा- 'गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं।“ अगले दिन बालासोर हॉस्पिटल में उनकी मौत हो गई।
उनकी मौत के बाद चले ट्रायल के दौरान ब्रिटिश प्रोसीक्यूशन ऑफीसर ने कहा, ““Were this man living, he might lead the world.” । इस वाक्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितना खौफ होगा बाघा जतिन का उस वक्त। चार्ल्स टेगार्ट ने तो लिखा है, कि अगर जर्मनी से वो हथियारों की खेप क्रांतिकारियों के हाथ में पहुंच जाती तो हम जंग हार जाते। उसके बावजूद इस योद्धा के स्टेच्यू देश की राजधानी में मिलना तो दूर किसी बच्चे को उसका नाम नहीं पता होगा। हां कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल पर जरूर उनका एक स्टेच्यू है। पश्चिम बंगाल के अलावा शायद ही किसी राज्य में बच्चे इतिहास की किताबों में बाघा जतिन का नाम पढ़ते होंगे।